आईपीसी की धारा 377 पर उच्चतम न्यायालय का फैसला
उच्चतम न्यायालय ने 6 सितम्बर को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 पर एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया. अपने फैसले में न्यायालय ने आईपीसी की धारा-377 के कुछ मामले में दंडात्मक प्रावधान को निरस्त कर दिया. न्यायालय ने धारा-377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया, जिसमें दो वयस्कों के बीच परस्पर सहमति से यौन संबंध बनाना अपराध था.
क्या है आईपीसी की धारा 377?
धारा-377 को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में 1861 में शामिल किया गया था. इस धारा के मुताबिक कोई व्यक्ति यदि किसी पुरुष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह गैर-जमानती अपराध होगा. इस अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की कैद के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा. समलैंगिकता की इस श्रेणी को LGBTQ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर- एलजीबीटी) के नाम से भी जाना जाता है.
उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने आईपीसी की 377 को पूरी तरह रद्द नहीं किया है. जानवरों के साथ अप्राकृतिक संबंध स्थापित करने पर यह धारा लागू रहेगी. नाबालिगों के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने पर भी इसी धारा के तहत मुकदमा चलेगा.
5 सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने एक मत से यह फैसला सुनाया. संविधान पीठ में न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा शामिल हैं.
उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है. न्यायालय ने धारा 377 को अतार्किक और मनमानी बताते हुए कहा कि एलजीबीटी समुदाय को भी समान अधिकार है. न्यायालय ने कहा कि यौन प्राथमिकता बाइलोजिकल और प्राकृतिक है. यौन प्राथमिकताओं के अधिकार से इनकार करना निजता के अधिकार को देने से इनकार करना है. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि इस अधिकार को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत पहचान मिली है. भारत भी इसकी सिग्नेट्री है कि किसी नागरिक की निजता में घुसपैठ का राज्य को हक नहीं है.
इंद्रधनुष एलजीबीटी प्राइड का प्रतीक
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने फैसले में कहा कि “हर बादल में इंद्रधनुष (रेनबो) खोजा जाना चाहिए.” यहाँ उल्लेखनीय है कि इंद्रधनुषी झंडा एलजीबीटी समुदाय का प्रतीक है. इंद्रधनुष (रेनबो) दुनिया में सबसे व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त एलजीबीटी प्रतीक है.
समलैंगिकों का ये झंडा सबसे पहले सेन फ्रांसिस्को के कलाकार गिल्बर्ट बेकर ने एक स्थानीय कार्यकर्ता के कहने पर समलैंगिक समाज को एक पहचान देने के लिए बनाया था. इस झंडे में आठ रंग होते थे, जिसमें (ऊपर से नीचे) गुलाबी रंग यौन को, लाल रंग जीवन को, नारंगी रंग चिकित्सा, पीला रंग सूर्य को, हरा रंग शांति को, फिरोजा रंग कला को, नीला रंग सामंजस्य को और बैंगनी आत्मा को दर्शाता था. 1979 के समलैंगिक परेड से इस झंडे से गुलाबी और फिरोजा रंग को हटा दिया गया.
फैसले के संवैधानिक पहलु
न्यायालय ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 से समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है. आईपीसी की इस धारा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन माना है. एलजीबीटी (lesbian, gay, bisexual, and transgender) समुदाय को अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार हैं.
न्यायालय ने आईपीसी की धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 में दिए गए अधिकारों का भी हनन बताया है. इन अनुच्छेद की संक्षिप्त व्याख्य इस प्रकार है:
- अनुच्छेद 14: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि भारत के किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा.
- अनुच्छेद 15: राज्य द्वारा धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर विभेद नहीं किया जायेगा.
- अनुच्छेद 19: अनुच्छेद 19 में सात प्रकार की स्वतंन्त्रता दी गई थी 44 वें संविधान संशोधन 1978 (सम्पति की स्वतन्त्रता हटा दिया गया)
- अनुच्छेद 21: किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रकिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता.
धारा-377 पर लिए गये पूर्व फैसले
- समलैंगिक यौन संबंधों का मुद्दा पहली बार गैर सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया था.
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में अपने फैसले में आईपीसी के धारा-377 के प्रावधान को गैरकानूनी करार देते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया.
- दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी. दिसंबर 2013 में उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले पलट दिया. उच्चतम न्यायालय में इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए दायर याचिका भी खारिज कर दी.
- 2015 में शशि थरूर ने लोकसभा में एक प्राइवेट बिल लाए, जिसमें समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की बात कही गई थी, लेकिन लोकसभा ने इसके खिलाफ वोट किया.
- 6 सितम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2013 को सुनाए गए अपने ही फैसले को पलट दिया. सीजेआई दीपक मिश्रा, के साथ जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने 10 जुलाई को मामले की सुनवाई शुरु की थी और 17 जुलाई 2018 को फैसला सुरक्षित रख लिया था.
अन्य देशों में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता
उच्चतम न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत दुनिया का 27वां देश बन गया जहां समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दी गई है.
भारत से पहले इन देशों में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है:
ऑस्ट्रेलिया, माल्टा, जर्मनी, फिनलैंड, कोलंबिया, आयरलैंड, अमेरिका, ग्रीनलैंड, स्कॉटलैंड, लक्जमबर्ग, इंग्लैंड और वेल्स, ब्राजील, फ्रांस, न्यूजीलैंड, उरुग्वे, डेनमार्क, अर्जेंटीना, पुर्तगाल, आइसलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, कनाडा, बेल्जियम और नीदरलैंड.